नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण कानून के तहत कब्जे और मुआवजे के भुगतान के बाद अधिग्रहित जमीन सरकार की धरोहर होती है, जो सभी तरह की बाधाओं से मुक्त होती है। जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की अवकाशकालीन पीठ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस विचार से सहमति जताई कि इसके बाद भूमि पर कब्जा रखने वाले किसी भी व्यक्ति को अनाधिकृत रूप से अतिक्रमण करने वाला माना जाना चाहिए।
शीर्ष अदालत उत्तर प्रदेश के एक निवासी की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण द्वारा दो फरवरी को जारी उस नोटिस को चुनौती दी गई थी, जिसमें प्राधिकरण ने अधिसूचित क्षेत्र के तहत स्थित एक भूखंड से अनाधिकृत अतिक्रमण हटाने के लिए कहा गया था।
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता की भूमि का अधिग्रहण किया गया था, उसका कब्जा लिया गया था और भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के तहत मुआवजे का भुगतान भी किया गया था। कोर्ट ने कहा, ‘इस मामले में, याचिकाकर्ता को कब्जा करने और या कब्जा जारी रखने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि अधिग्रहण के बाद, भूमि पूरी तरह से राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है। हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से सही ही इन्कार किया है। हम हाई कोर्ट के दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हैं।
पीठ ने कहा, ‘इसलिए, हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उस आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं देखते हैं। इसलिए विशेष अनुमति याचिका खारिज की जाती है।’
इससे पहले हाई कोर्ट ने कहा था कि भूमि के अधिग्रहण और निर्णय पारित होने के बाद, भूमि सभी बाधाओं से मुक्त होकर सरकार के पास आ जाती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने दलील दी थी कि विचाराधीन भूमि का कब्जा 1996 में लिया गया था और यहां तक कि राजस्व रिकार्ड की प्रविष्टि भी बदल दी गई थी, लेकिन याचिकाकर्ता ने फिर से भूमि पर अतिक्रमण कर लिया था।