तालिबान अफगान सत्ता पर काबिज हो गया है, लेकिन पंजशीर उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। ये वो इलाका है जिसे तालिबान कभी नहीं जीत सका। इस बार भी इस अभेद्य दुर्ग को तालिबानी अब तक भेद नहीं पाए हैं।
पंजशीर की घाटियां तालिबान के विरोध का प्रतीक बनती जा रही हैं। कभी पंजशीर के शेर अहमद शाह मसूद का गढ़ रहे इस इलाके से विरोध का झंडा उनके बेटे अहमद मसूद ने उठाया है। उनके साथ अशरफ गनी सरकार में उप राष्ट्रपति रहे अमरुल्लाह सालेह भी हैं।
ऐसा इस इलाके में क्या है जो तालिबान यहां कभी कब्जा नहीं कर सका? इस इलाके का इतिहास और भूगोल क्या कहता है? पिछले बीस साल में पंजशीर कितना बदला है? पंजशीर की इस बार की लड़ाई पिछली बार से कितनी अलग है? आइए जानते हैं…
लड़ाई में पंजशीर घाटी के भूगोल की क्या भूमिका है?
काबुल से 150 किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित पंजशीर घाटी हिंदुकुश के पहाड़ों के करीब है। उत्तर में पंजशीर नदी इसे अलग करती है। पंजशीर का उत्तरी इलाका पंजशीर की पहाड़ियों से भी घिरा है। वहीं दक्षिण में कुहेस्तान की पहाड़ियां इस घाटी को घेरे हुए हैं। ये पहाड़ियां सालभर बर्फ से ढंकी रहती हैं। इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि पंजशीर घाटी का इलाका कितना दुर्गम है। इस इलाके का भूगोल ही दुश्मन के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाता है।
कभी चांदी के खनन के लिए मशहूर रही है पंजशीर
मध्यकाल में ये घाटी चांदी के खनन के लिए मशहूर रही है। इस घाटी में अभी पन्ना के भंडार हैं। इनका सही इस्तेमाल हो तो ये पन्ना खनन का हब बन सकती है। 1985 तक इस वैली में करीब 190 कैरेट क्रिस्टल पाया गया था। कहा जाता है कि यहां पाए जाने वाले क्रिस्टल की क्वॉलिटी कोलंबिया की मुजो खदानों जैसी है। मुजो खदानों के क्रिस्टल दुनिया में सबसे बेहतरीन होते हैं। पंजशीर की धरती के नीचे पन्ना का बहुत बड़ा भंडार है। जिसे अब तक छुआ तक नहीं गया है। अगर यहां माइनिंग का इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो जाता है तो इस इलाके का बहुत तेजी से विकास हो सकता है।
पंजशीर का इतिहास क्या कहता है?
1980 के दशक में सोवियत संघ का शासन, फिर 1990 के दशक में तालिबान के पहले शासन के दौरान अहमद शाह मसूद ने इस घाटी को दुश्मन के कब्जे में नहीं आने दिया। पहले पंजशीर परवान प्रोविंस का हिस्सा थी। 2004 में पंजशीर को अलग प्रोविंस का दर्जा मिल गया। अगर आबादी की बात करें तो 1.5 लाख की आबादी वाले इस इलाके में ताजिक समुदाय की बहुलता है। मई के बाद जब तालिबान ने एक बाद एक इलाके पर कब्जा करना शुरू किया तो बहुत से लोगों ने पंजशीर में शरण ली। उन्हें ये उम्मीद थी कि पहले की ही तरह इस बार भी ये घाटी तालिबान के लिए दुर्जेय साबित होगी। उनकी ये उम्मीद अब तक सही साबित हुई है।
क्या पंजशीर के लड़ाकों को कभी विदेशी मदद भी मिली है?
1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई में पंजशीर के लड़ाकों को अमेरिका ने हथियार देकर मदद की थी। वहीं वित्तीय मदद उसे पाकिस्तान के जरिए आती थी। उसके बाद जब तालिबान सत्ता में आया तो यहां सक्रिय नॉर्दर्न अलायंस को भारत, ईरान और रूस से मदद मिली। उस दौर में अफगानिस्तान का अधिकांश उत्तरी इलाका तालिबान के कब्जे से दूर ही रहा।
इस बार तालिबान पिछली बार की तुलना में ज्यादा मजबूत हुआ है। पंजशीर एकमात्र प्रोविंस है जो तालिबान के कब्जे से दूर है। तालिबान को चीन, रूस और ईरान का भी समर्थन है। ये भी तय नहीं है कि पंजशीर के लड़ाकों को इस बार कोई इंटरनेशनल मदद मिलेगी भी या नहीं। अहमद शाह मसूद के बेटे और इस बार पंजशीर में लड़ाई की अगुआई कर रहे अहमद मसूद ने भी कहा है कि वो अपने पिता के नक्शे कदम पर चलने को तैयार हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें और हथियार और गोला-बारूद की जरूरत पड़ेगी। वो इंटरनेशनल कम्युनिटी से मदद चाहते हैं।
पिछले बीस साल से तो अफगान सरकार सत्ता में थी, इस दौरान क्या पंजशीर में कोई डेवलपमेंट नहीं हुआ?
पिछले बीस साल के दौरान पंजशीर में विकास के कुछ काम हुए हैं। घाटी में आधुनिक सड़कों का निर्माण हुआ है। एक नया रेडियो टावर भी यहां लगाया गया है। इसके लगने के बाद घाटी के लोग काबुल रेडियो का प्रसारण सुन पाते थे। हालांकि अभी भी यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। अफगान सरकार के दौरान यहां किसी तरह का कोई खूनी संघर्ष नहीं हुआ। इस वजह से इस इलाके को अमेरिकी मानवाधिकार कार्यक्रमों के जरिए मदद नहीं मिल सकी। 512 गांवों और 7 जिलों वाले इस प्रोविंस में बिजली और पानी तक की सप्लाई की व्यवस्था नहीं है।
पंजशीर के सामने बड़ी चुनौती क्या है?
पंजशीर की सीमा से लगने वाले हर इलाके पर तालिबान का कब्जा हो चुका है। ऐसा खतरा जताया जा रहा है कि तालिबान जरूरी समानों और खाने-पीने की चीजों की सप्लाई रोक सकता है। ऐसे में इस इलाके को अंतरराष्ट्रीय मदद की जरूरत होगी। हालांकि आधिकारिक रिपोर्ट्स कहती हैं कि पंजशीर घाटी के पास इतना खाना और मेडिकल सप्लाई है कि अगली सर्दियों तक उसका काम चल सकता है।
2001 में तालिबान को सत्ता से बेदखल करने में क्या था पंजशीर का रोल?
बात 1996 की है, जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया। तालिबान ने उस वक्त तक उत्तरी अफगानिस्तान छोड़कर अधिकांश इलाकों पर कब्जा कर लिया था। उसके सत्ता में आने के बाद राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी और रक्षा मंत्री अहमद शाह मसूद अपने साथियों के साथ उत्तरी अफगानिस्तान आ गए। यहां, पंजशीर के शेर मसूद ने तालिबान के खिलाफ नॉर्दर्न अलायंस का गठन किया। पंजशीर से ही तालिबान के खिलाफ लड़ाई जारी रही।
2001 में मसूद अल-कायदा के हमले में मारे गए। इसके बाद जब अमेरिका अफगानिस्तान आया तो उसके सफल होने में नॉर्दर्न अलायंस का बड़ा रोल था। नॉर्दर्न अलायंस की मदद से अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया।
इस बार पंजशीर के लिए कितनी अलग है लड़ाई?
पिछली बार जहां उत्तरी अफगानिस्तान के कई इलाके तालिबान के कब्जे में नहीं थे। वहीं, इस बार पंजशीर को छोड़कर पूरा उत्तरी अफगानिस्तान भी तालिबान के कब्जे में है। तालिबान के खिलाफ लड़ाई की अगुआई अहमद शाह मसूद के 32 साल के बेटे अहमद मसूद कर रहे हैं। उनके साथ गनी सरकार में उप-राष्ट्रपति रहे अमरुल्लाह सालेह भी हैं। गनी के देश छोड़कर चले जाने के बाद सालेह ने खुद को देश का केयर टेकर राष्ट्रपति घोषित किया है। ऐसे संकेत हैं कि तालिबान के खिलाफ लड़ाई का केंद्र अब पंजशीर ही होगा।
पिछली बार के मुकाबले इस बार हालात ज्यादा मुश्किल हैं। सालेह और मसूद के लिए अफगान लोगों के बीच 1990 के दशक जैसा समर्थन हासिल करना भी बड़ी चुनौती होगी। चारो तरफ से तालिबान से घिरा पंजशीर हर तरह की सप्लाई लाइन काट दिए जाने के बाद उससे कैसे लड़ेगा, ये भी देखना होगा।