चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सत्ता में आने पर राजनीतिक दलों की ओर से मुफ्त उपहार देने के वादों को रेगुलेट करने की कोई भी कार्रवाई तभी कारगर होगी, जब इसे लेकर कानूनी प्रावधान बनाए जाएं। पोल पैनल वकील और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की ओर से दायर जनहित याचिका का जवाब दे रहा था, जिसमें मुफ्त की घोषणा करने वाले राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की मांग की गई थी।

इलेक्शन कमीशन ने अपने हलफनामे में कहा कि चुनाव आयोग राज्य की नीतियों और फैसलों को रेगुलेट नहीं कर सकता है, जो जीतने वाली पार्टी की ओर से सरकार बनाने पर लिए जा सकते हैं। इस तरह की कार्रवाई कानूनी प्रावधानों को सक्षम किए बिना शक्तियों का अतिक्रमण होगा। यह ध्यान रहे कि मुफ्त उपहार देना राजनीतिक दलों का नीतिगत फैसला है। अदालत पार्टियों के लिए दिशानिर्देश तैयार कर सकती है। चुनाव आयोग इसे लागू नहीं कर सकता।

राज्य के मतदाताओं को तय करना है कि…
चुनाव आयोग ने अपने जवाब में अदालत को बताया कि क्या ऐसी नीतियां आर्थिक रूप से सही हैं या राज्य के आर्थिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, यह एक सवाल है जिसे राज्य के मतदाताओं को तय करना है। जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में याचिका पर जवाब मांगा था। सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को मुफ्त उपहार देने का वादा करने वाले राजनीतिक दलों पर चिंता व्यक्त की थी। अदालत ने इसे गंभीर मुद्दा बताते हुए कहा था कि इससे नियमित बजट पर असर पड़ता है।

राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की मांग 
याचिका में चुनाव आयोग को चुनाव चिन्हों को जब्त करने और सार्वजनिक धन से मुफ्त में बांटने का वादा करने वाले राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की मांग की गई। चुनाव आयोग के नियमों के बावजूद नागरिकों के पैसे का दुरुपयोग किया जा रहा है। याचिका में कहा गया कि यह एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ों को हिलाता है। इससे चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता खराब होती है। मुफ्त उपहार देने की प्रवृत्ति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, बल्कि संविधान की भावना को भी चोट पहुंचाती है।