हिन्दू कैलेंडर के अनुसार वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन माह पूर्णिमा को होलिका दहन होता है। होली की पौराणिक कथा चार घटनाओं से जुड़ी हुई है। पहली होलिका और भक्त प्रहलाद, दूसरी कामदेव और शिव, तीसरी राजा पृथु और राक्षसी ढुंढी और चौथी श्रीकृष्ण और पूतना। लेकिन उक्त सभी में होलिका और भक्त प्रहलाद की कथा को ही मान्यता है क्योंकि इसी की घटना की याद में होलिका दहन करके दूसरे दिन भक्त प्रहलाद के बचने की खुशी में धुलेंडी का त्योहार मनाया जाता है। आओ जानते हैं होली की पौराणिक और प्रामाणिक कथा।

ऋषि कश्यप और दिति के दो बलशाली पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु थे और दो पुत्रियां सिंहिका और होलिका थीं। हिरण्याक्ष धरती को जल में डूबो दिया था तो भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध किया था। सिंहिका को हनुमानजी ने लंका जाते वक्त रास्ते में मार दिया था। अब बचे हिरण्यकशिपु और होलिका। इन्हीं की है यह कथा।
एक बार की बात है त्रैलोक्य पर विजय प्राप्ति के लिए हिरण्यकश्यपु ब्रह्मा की तपस्या में लीन था। असुरराज हिरण्यकशिपु की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे वर मांगने को कहा तो उसने कहा कि अमरता का वरदान चाहिए। ब्रह्माजी ने कहा कि यह संभव नहीं कुछ और मांगों, तो उसने कहा कि ‘आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्‍य, पशु, देवता, दैत्‍य, नागादि किसी से मेरी मृत्‍यु न हो। मैं समस्‍त प्राणियों पर राज्‍य करूं। मुझे कोई न दिन में मार सके न रात में, न घर के अंदर मार सके न बाहर। यह भी कि कोई न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार मार सके। न भूमि पर न आकाश में, न पाताल में न स्वर्ग में।’ ब्रह्माजी तथास्तु कहकर उसे वर प्रदान करके अंतर्धान हो गए।
हिरण्यकशिपु जब तपस्या में लीन था तब उसी दौरान देवों ने असुरों पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया था और देवराज इन्द्र हिरण्यकशिपु की गर्भिणी पत्नी ‘कयाधु’ को बंधी बनाकर ले गए थे, परंतु बीच रास्ते में ही उनकी मुलाकात देवऋषि नारद से हुई। नारदजी ने इंद्र को उपदेश दिया कि आप ये पाप कर रहे हैं। उपदेश सुनकर इंद्र हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु को महर्षि के आश्रम में छोड़कर स्वयं देवलोक चले गए। गर्भवती कयाधु को नारद ने विष्णु भक्ति और भागवत तत्व से अवगत कराया। यह ज्ञान गर्भ में पल रहे पुत्र प्रहलाद ने भी प्राप्त किया।
इधर, हिरण्यकश्यप जब लौटा तो इस वरदान ने उसके भीतर अजर-अमर होने का भाव उत्पन्न हो गया। इसके चलते उसने धरती पर अत्याचार शुरू कर दिया था। उसने देवों को अपना दास बनाया। ऋषि-मुनियों व भगवद भक्तों को तंग करने लगा, यज्ञों को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उसने आदेश दिया कि उसके राज्य में किसी भी देवता की पूजा नहीं होगी। उसने कहा कि हिरण्याय नमः के अतिरिक्त अन्य किसी भी मंत्र का उच्चारण नहीं किया जाएगा। पूरे राज्य में स्वयं उसी की पूजा की जाए, अन्य किसी की नहीं। जो ऐसा नहीं करे उन्हें वह मार दिया जाए।
उचित समय पर बाद में प्रहलाद का जन्म हुआ तो राज्य में खुशियां मनाई गई। हिरण्यकश्यप के चार पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रहलाद का उपनयन संस्कार करके उसे गुरुकुल भेजा गया। कुछ समय बाद हिरण्यकश्यप को यह जानने की उत्सुकता हुई की गुरुकुल में मेरे पुत्र क्या सीख रहे हैं। उसने प्रहलाद को बुलाकर पूछा तुमने गुरुकुल में क्या सीखा?
प्रहलाद ने कहा कि भगवान विष्णु की नवविध भक्त सीखी। अपने पुत्र के मुख से अपने शत्रु विष्णु का नाम सुनकर हिरण्यकश्यपु क्रोधित हो गया। कई बार समझाने पर भी प्रहलाद ने विष्णु की पूजा पाठ बंद नहीं की तो इससे क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपने गुरु को बुलाकर कहा कि ऐसा कुछ करो कि यह विष्णु का नाम रटना बंद कर दे। गुरु ने बहुत कोशिश की किन्तु वे असफल रहे। तब असुरराज ने अपने पुत्र की हत्या का आदेश दे दिया।
सैनिकों द्वारा उसे विष दिया गया, उस पर तलवार से प्रहार किया गया, विषधरों के सामने छोड़ा गया, हाथियों के पैरों तले कुचलवाना चाहा, पर्वत से नीचे फिंकवाया, लेकिन श्रीहरि विष्णु कृपा से प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को प्रहलाद को बंदी बनाकर पूरे आठ दिन तक त्रास दिया गया। हर तरह से मारने का प्रयास किया।
हिरण्यकश्यपु को चिंता होने लगी की यह नहीं मरा तो लोग विष्णु की ही भक्ति करने लगेंगे। उसकी चिंता को देखकर उसकी बहन होलिका ने कहा कि आप चिंता ना करें भैया, मुझे ब्रह्मा से वरदान प्राप्त है कि मैं किसी भी प्रकार से अग्नि में जलकर नहीं मर सकती हूं। अग्नि में तो सभी भस्म हो ही जाते हैं। तब हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि तुम प्रहलाद को अपनी गोदी में लेकर अग्नि में बैठ जाओ, जिससे वह जलकर भस्म हो जाएगा।
होलिका को वरदान था कि उसे अग्नि तब तक कभी हानि नहीं पहुंचाएगी, जब तक कि वह किसी सद्वृत्ति वाले मानव का अहित करने की न सोचे। होलिका यह बात भूल गई थी। वह अपने भाई की बात को मानकर अपने भतीजे प्रहलाद को गोदी में लेकर अग्नि में बैठ गई। उस दिन फाल्गुन माह की पूर्णिमा थी। सद्वृत्ति वाले प्रहलाद का अहित करने के प्रयास में होलिका तो स्वयं जलकर भस्म हो गई और प्रहलाद श्रीहरि विष्णु का नाम जपते हुए अग्नि से बाहर आ गया। यह देखकर तो हिरण्यकश्यपु और भी ज्यादा क्रोधित और चिंतित हो गया।
इस घटना के बाद हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद को एक खंभे से बांध दिया। फिर भरी सभा में प्रहलाद से पूछा, ‘किसके बलबूते पर तू मेरी आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है?’
प्रहलाद ने कहा, ‘आप अपना असुर स्वभाव छोड़ दें। सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की पूजा है।’
हिरण्यकश्यपु ने क्रोध में कहा, ‘तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्‍वामी बताता है। कहां है वह तेरा जगदीश्‍वर? क्‍या इस खंभे में है जिससे तू बंधा है?’
यह कहकर हिरण्यकश्यपु ने खंभे में घूंसा मारा। तभी खंभा भयंकर आवाज करते हुए फट गया और उसमें से एक भयंकर डरावना रूप प्रकट हुआ जिसका सिर सिंह का और धड़ मनुष्‍य का था। पीली आंखें, बड़े-बड़े नाखून, विकराल चेहरा और तलवार-सी लपलपाती जीभ। यही ‘नृसिंह अवतार’ थे। उन्होंने तेजी से हिरण्‍यकश्यप को पकड़ लिया और संध्या की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जांघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्‍त्र से, न शस्‍त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला। हजारों सैनिक जो प्रहार करने आए, उन्‍हें भगवान नृसिंह ने हजारों भुजाओं और नखरूपी शस्‍त्रों से खदेड़कर मार डाला।
फिर क्रोध से भरे नृसिंह भगवान सिंहासन पर जा बैठे। तब प्रहलाद ने दंडवत होकर उनकी प्रार्थना-पूजा की। प्रहलाद का राजतिलक करने के बाद नृसिंह भगवान चले गए।
संदर्भ : विष्णु पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण