कोरबा/ कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, कटघोरा द्वारा एक जुलाई से 31 जुलाई तक ’वन महोत्सव -प्लानटेशन इन डीग्रेडेड लेण्ड आॅफ कोरबा’ का आयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के श्रंृखला में 9 जुलाई से 15 जुलाई तक पाॅच दिवसीय ग्रीन लेक्चर सीरीज का कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम का आयोजन डॅा. एस.एल. स्वामी, अधिष्ठाता, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, कटघोरा, कोरबा के निर्देशन में किया गया। महाविद्यालय द्वारा इस पंच  दिवसीय ग्रीन लेक्चर सीरीज का सफलतापूर्वक आयोजन हुआ जिसमें महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के विभिन्न छात्र छात्राओं, वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों ने आॅनलाइन के माध्यम से भाग लिया तथा लाभान्वित हुये एवं पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रेरित हुये। कार्यक्रम के पश्चात प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र प्रदान किया गया। ग्रीन लेक्चर सीरीज में देश के विभिन्न ख्याति प्राप्त विशेषज्ञों डॅा. के.टी. पारतीबन, अधिष्ठाता, वानिकी महाविद्यालय अनुसंधान संस्थान, तमिलनाडू, डॅा. एस.एल. स्वामी, अधिष्ठाता, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, कटघोरा, कोरबा, डॅा. मनमोहन डोबरीयाल, विभागाध्यक्ष, कृषि वानिकी, रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झांसी, उत्तर प्रदेश, डॅा. एस.डी. उपाध्याय, प्राध्यापक, मेडिकेप विश्वविद्यालय, इंदौर एवं डॅा. अरविंद बिजलवान, विभागाध्यक्ष, संयुक्त निदेशक  (विस्तार) कृषि वानिकी विभाग, वानिकी महाविद्यालय, रानी चैरी व्हीसीएसजीयूएचएफ उत्तराखंड द्वारा विविध विषयों पर व्याख्यान दिया गया। वन महोत्सव के अंतर्गत 07 एवं आठ जुलाई को सघन वृक्षारोपण का कार्यक्रम आयोजित किया गया। वृक्षारोपण खदान प्रभावित पड़त भूमि में संम्पन्न किया गया।
ग्रीन लेक्चर सीरीज का उद्घाटन डॅा. एस.एल. स्वामी, अधिष्ठाता, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, कटघोरा, कोरबा के द्वारा किया गया। उद्घाटन सत्र में डॅा. के.टी. पारतीबन ने अपना व्याख्यान आर्थिक व पर्यावरणीय स्थिरता के लिये वृक्षारोपण वानिकी विषय पर दिया उन्होंने अपने व्याख्यान में बताया कि आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिरता के लिये वृक्षारोपण बहुत जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि 2030 तक कुल 33 प्रतिशत क्षेत्र को वनों से ढकने का लक्ष्य रखा गया है। कृषि वानिकी क्षेत्र विश्व में 1023 मिलियन हेक्टेयर और भारत में 13.75 मिलियन हेक्टेयर है। उन्होंने इसके साथ वैकल्पिक औद्यौगिक लकड़ी की प्रजाति (बबूल, एक्रोकारपस, तुना महोगनी) चारा वृक्षारोपण (शीशम, शहतूत, कचनार, अर्जुन वृक्ष) मल्टी क्लोनल एग्रो फारेस्ट््री (इसके तहत जैव इंधन पौधे, वन चारागाही माॅडल, अधिक मूल्य वाले पौधे, गैर लकड़ी वन उत्पाद) आदि के बारे में बताया और यह भी कहा कि इस माॅडल के द्वारा आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है।
कार्यक्रम की अगली श्रृखला में 12 जुलाई 2021 को डॅा. एस.एल. स्वामी, अधिष्ठाता, कृषि महाविद्यालय के द्वारा भारत की पर्यावरणीय समस्यायें उनके मुद्दे, चुनौतियों एवं प्रबंधन विषय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने पर्यावरण को परिभाषित करते हुये उसके प्रमुख समस्याओं, कारणों, जनसंख्या वृद्धि का आश्चर्यजनक तथ्य, माल्थस सिद्धांतों के साथ जनसंाख्यिकी की विशेषताओं जैसे जन्म, मृत्यु, प्रवासन एवं अप्रवासन को विस्तार से बताया। उन्होंने कृषि क्षेत्रों की समस्यायें जैसे शाकनाशी, फफूंदनाशी, कीटनाशी उर्वरक का अत्यधिक उपयोग से उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियों एवं उनके निदान के बारे में भी श्रोताओं को अवगत कराया। उन्होंने कहा कि पर्यावरण के क्षरण के लिये मानव जिम्मेदार हैं, और इसके संरक्षण के लिये लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने की बहुत अधिक आवश्यकता है। इसके साथ ही वृक्षारोपण पर विशेष बल दिया।
लेक्चर सीरीज के अगले चरण में 13 जुलाई को डॅा. मनमोहन डोबरीयाल के द्वारा वन लोग नीति और परिस्थिति की विषय पर चर्चा की गई। उन्होंने अपने व्याख्यान में वनों के पांच प्रमुख समूह उष्णकटिबंधीय वन, मोंटाने समशीतोष्ण वन, मोंटाने उपोष्णकटिबंधीय वन, उप अल्पाईन वन एवं अल्पाईन वन तथा इसके अंतर्गत 16 विभिन्न प्रकार जो भारत के कुल 21.54 प्रतिशत भू-भाग को अच्छादित करते है, इसके बार में विस्तार से बताया। उन्होंने पर्यावरण के संरक्षण में निहित प्रमुख आंदोलन कार्यो जिसमें नोबल पुरस्कार सम्मानित वंगारी मथाई, गौरा देवी, सुन्दर लाल बहुगुणा, चांदी प्रसाद भट्ट, विष्णु लांबा, तुलसी गौड़ा के महत्वपूर्ण योगदान पर प्रकाश डाला। उन्होंने देश के सामान्य कल्याण को बढ़ावा देने के लिये तथा जंगलों के प्रबंध के उद्ेश्य के साथ व्याख्यात की गई। वन नीतियों जैसे वन नीति 1985, वन कानून 1992, वन नियम 1995, राष्ट्ीय पर्यावरणीय नीति 2012 पर प्रकाश डाला और इसके प्रति जन सामान्य में जागरूकता फैलाने की बात की। साथ ही कृषि में परिस्थिति की संतुलन को बढ़ावा देने के लिये कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डाला। इसमें उन्हांेने परम्परागत कृषि, वानिकी कृषि, पर्माकल्चर इत्यादि पर विशेष जोर दिया। पर्माकल्चर पर उन्होंने संक्षिप्त टिप्पणी में कहा कि यह भूमि प्रबंधन से संबंधित एक विशेष दृष्टिकोण है तथा परिस्थितिकी खेती है जो प्राकृतिक पर्यावरण में विद्यमान विन्यासों को अपनाने की दृष्टि पर आधारित है। उन्होंने इस बात पर अपने विचार रखें कि वन उत्पादों के उत्पादन काफी हद तक वन के प्रकार और स्वामित्व पर निर्भर करता है।
14 जुलाई को डॅा. एस.डी. उपाध्याय द्वारा पर्यावरणीय चुनौतियों का मुकाबला करने में जंगल के बाहर पेड़ की भूमिका विषय पर परिचर्चा की गई। उन्होंने पर्यावरणीय समस्याओं का कारण जैव विविधता का ह्ास, ग्लोबल वार्मिग, भूमि क्षरण, जंगल का सिकूड़न, ईधन, चारे की कमी, पोषण संबंधी असुरक्षा, पर्यावरण प्रदूषण आदि को बताया तथा इन सभी से उबरने के लिये वृक्षों एवं वनों पर खास जोर दिया तथा यह निष्कर्ष दिया कि वनों के बाहर वृक्षों को शामिल करने वाले सभी कार्यक्रमों की भविष्य की सफलता उन सिद्धंातों के अनुप्रयोग पर निर्भर करेगी। इन सिद्धांतों में सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण योजना, कार्यान्वयन और वनों की कटाई में स्थायी समुदाओं की भागीदारी है। तथा ज्व्थ् पर्यावरणीय गिरावट, भोजन की कमी, उर्जा की कमी और भौतिक गरीबी के निरंतर संकट से निपटने के लिये बोर्ड के संदर्भ में तैयार की गई है। इसके साथ ही उन्होंने छात्रों को कृषि क्षेत्र में कैरियर के विभिन्न अवसरों से भी अवगत कराया।
कार्यक्रम के समापन सत्र में दिनांक 15 जुलाई को डॅा. अरविंद बिजलवान ने अपने व्याख्यान में हरेला त्यौहार का जिक्र किया जिसे उत्तराखण्ड में हरियाली पर्व के रूप में मनाया जाता है। जिसे वहां की सरकार द्वारा इसे राजकीय पर्व भी घोषित कर दिया गया है। जिसकी मुख्य अवधारणा वानिकी को सुरक्षित एवं संरक्षित रखना है। साथ ही परम्परागत तरीके से वनों के संरक्षण पर विशेष जोर दिया उन्होंने गड़वाल हिमालय के ओक वृक्षों पर अपने अध्ययन की भी कुछ जानकारियाॅं साॅंझा की। यह वृक्ष जल विज्ञान चक्र को नियंत्रित करने, मृदा एवं नमी संरक्षण, कार्बन मात्रा पृथकरण तथा बहु क्रियाशील भूमिका निभाती है।