कश्मीर फाइल्स’ जो कहना चाहती है वह सही है। इसको लेकर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि 1989-1990 में इस्लामिक गिरोहों ने कश्मीर घाटी से हिंदुओं को पलायन पर मजबूर कर दिया था। सितंबर 1989 में टीका लाल टपलू की हत्या के बाद कई लोगों का कत्ल कर दिया गया था। स्थानीय उर्दू अखबारों में गुमनाम स्रोतों की ओर से जारी विज्ञापनों में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने की धमकी दी गई। यह सब भारत की दो पीढ़ियों को मालूम है।

इसलिए ‘कश्मीर फाइल्स’ को इस विवाद में उलझाना दुखद है कि वास्तव में कितने कश्मीरी पंडितों की हत्या की गई थी, कि क्या वह जातीय सफाया था या नरसंहार था या ‘होलोकॉस्ट’ (सर्वनाश)? इस बहस से कुछ हासिल नहीं होना। उस भीषण राष्ट्रीय आपदा के 32 साल बाद ध्यान देने वाली बात यह है कि हम अभी भी उसे मारे गए लोगों की संख्या पर बहस में सीमित कर रहे हैं। वह संख्या उस त्रासदी को न तो हल्का करेगी और न गहरा करेगी। न ही वह उस बहुसंख्यक समुदाय- जो उस राज्य में अल्पसंख्यक था- के दुखों को कम करेगी, जिसे सेना, पुलिस और खुफिया एजेंसियों से लैस गणतंत्र में पलायन पर मजबूर कर दिया गया था।

एक पक्ष है जो मारे गए लोगों की संख्या के आगे मनमाने ढंग से शून्य जोड़ते जाने पर आमादा है; दूसरा पक्ष एक ओर तो म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय पर अत्याचारों को लेकर आंसू बहाता है वहीं दूसरी ओर हमसे कहता है कि कश्मीरी पंडितों के मामले को भूल-चूक लेनी-देनी की भावना से लें। ये एक ही विडंबना के दो रूप हैं। ‘कश्मीर फाइल्स’ का योगदान यह है कि इसने एक रिसते जख्म को सामने ला दिया, जो कभी भरा नहीं। इसका नकारात्मक पहलू यह है कि इस पर सिनेमाघरों से दर्शकों की डरावनी और शर्मनाक कट्टरपंथी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। एक पूरे समुदाय को खलनायक बताया जा रहा है और आम मुस्लिमों से बदला लेने की बातें की जा रही हैं। राहुल पंडिता अपनी किताब ‘अवर मून हैज़ ब्लड क्लाॅट्स’ में उस बर्बरता का विवरण दे चुके हैं लेकिन कुछ तथ्यों को लेकर सवाल उठाने पर उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।

पंडिता कहते हैं कि यह कश्मीरी पंडितों के लिए भाव-शुद्धि जैसा है, और इससे उन्हें गुजरना ही होगा। हमारी प्रवृत्ति सभी मसलों पर गोलमोल नजरिया अपनाने की है; हमारे तर्कों का कोई अंत नहीं होता। एक राष्ट्र और वैधानिक व्यवस्था के तौर पर हम गंभीरतम त्रासदियों को अंजाम देने वालों को जवाबदेह बनाने में विफल रहे हैं। भीषण दंगों से लेकर 1983 में असम के नेल्ली में मुसलमानों के छह घंटे के कत्लेआम तक; 1984 में दिल्ली और दूसरी जगहों पर सिखों की हत्याओं; 1990 में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार; 1983-93 के बीच पंजाब में हिंदुओं की चुन-चुनकर हत्याओं; और गुजरात में 2002 के नरसंहार तक यही होता रहा है।

जनता के साथ नाइंसाफी की अगर लीपापोती की जाती है तो वह कुछ समय के लिए तो भुला दी जाती है पर उसे कभी माफ नहीं किया जाता। वह वाचिक इतिहास का हिस्सा बन जाती है। किसी दिन आपको बंटवारे के दौरान हुए खूनखराबे पर फिल्म देखने को मिल सकती है। कोई भी सच इतना कड़वा या नागवार नहीं होता कि उसे परे न किया जा सके। कश्मीर मसले से निबटने में भारत बिना सोचे-समझे कदम उठाता रहा है और संशयग्रस्त फौरी लीपापोती करता रहा है, जिसका उदाहरण यासीन मलिक है। मलिक के नेतृत्व में एक आतंकवादी दस्ते ने 25 जनवरी 1990 को श्रीनगर में एक बस में सवार होने जा रहे वायुसेना के चार अफसरों और दो महिलाओं को मार डाला था। इस मामले की सुनवाई इसके 30 साल बाद 2020 में शुरू हुई और आरोप दर्ज किए गए। आखिर क्यों? ऐसा नहीं था कि मलिक फरार होकर पाकिस्तान चला गया था। वह यहीं रहा, और ज्यादा समय ‘एजेंसियों’ की अच्छी ‘रखवाली’ में रहा क्योंकि वे उसे अमन के पैरोकार के नए रूप में पेश करना चाहती थीं। यह तब था जब उसने कभी साफ तौर पर यह नहीं कहा कि उसने उन अफसरों की हत्या नहीं की थी। कई सरकारों के दौर में वह अमन करवाने वालों का चहेता बना रहा। करीब 25 साल पहले जब मैं ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ का नया संपादक बना था, तब एक सम्मानित एक्टिविस्ट ने मुझे फोन करके जोर दिया कि मैं दिवंगत कुलदीप नैयर के नेतृत्व वाले प्रतिनिधिमंडल में शामिल हो जाऊं ताकि ‘इस नौजवान को बचाया जा सके, जो अमन के लिए बहुत जरूरी है…। कि अगर यह बच्चा मर गया तो बहुत ट्रेजेडी हो जाएगी।’ उससे अलग रहना मेरे लिए आसान था क्योंकि ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की आचार संहिता कहती थी कि उसके पत्रकार मीडिया की आजादी के सवालों को छोड़ किसी और मसले की पैरवी में भाग नहीं ले सकते। लेकिन काश मैं सच बता सकता। बेकसूर नागरिकों और निहत्थे अधिकारियों की हत्या करने वाले शख्स को अपनाने का विचार मुझे नापसंद था। अगर हम शांति की इसी तरह कोशिश करेंगे तो यह भारत को नाराज करेगी। कितना नाराज किया, यह हम उन सिनेमाघरों में महसूस कर सकते हैं, जिनमें ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म दिखाई जा रही है। भावनाओं को शांत करने के लिए जरूरी है कि किसी भी आस्था के यासीन मलिकों को, नाइंसाफी के जिम्मेदारों को सजा दी जाए। इनकार में जीना तो दुष्चक्र में फंसे रहना है।